गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में बुधवार को समाप्त हुई कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की दो दिवसीय बैठक संगठन को कई कारणों से मजबूती प्रदान करेगी। इस राज्य की विधानसभा में वह 17 सीटों के साथ क्षीण विपक्ष की भूमिका निभा रही है और लोकसभा में भी उसका यहां से एकमात्र प्रतिनिधि है। फिर भी महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल की जन्मभूमि होने के कारण गुजरात उसके लिये प्राण वायु का काम करती रही है। हालांकि जब से गुजरात में नरेन्द्र मोदी का उद्भव हुआ है और बाद में उन्हें अमित शाह का साथ मिला, कांग्रेस इस राज्य में लगातार पिछड़ती गयी है। इसके बावजूद उसने अपने 84वें अधिवेशन के लिये गुजरात को चुनकर मजबूत इरादे जाहिर किये हैं। केन्द्र में तीन बार से और 18 राज्यों में सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के साथ सतत लड़ती हुई कांग्रेस का संदेश साफ है कि वह लोकतंत्र की रक्षा में पीछे नहीं हटेगी। अधिवेशन में अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपने भाषण के जरिये जहां स्पष्ट किया कि कांग्रेस अपनी विरासत की रक्षा के प्रति सतर्क है और वह इस पर किसी अन्य का अधिकार नहीं होने देगी, वहीं राहुल गांधी का उद्बोधन बतलाता है कि अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित वर्गों की आवाज वह उठाती रहेगी।
खड़गे ने कांग्रेस के नेतृत्व में छेड़े गये स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास के कई पन्ने पलटते हुए भाजपा की कलई खोलकर रख दी। उन्होंने अनेक दृष्टांत उद्धृत करते हुए भाजपा और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर जमकर हमला बोला। उन्होंने बतलाया कि जिन भाजपा-संघ के पास आजादी की लड़ाई में अपने योगदान के रूप में दर्शाने के लिए कुछ भी नहीं है, वे ही स्वतंत्रता संग्राम की विरासत पर दावा कर रहे हैं जो हास्यास्पद है। उन्होंने यह विसंगति भी सामने लाई कि सरदार वल्लभभाई पटेल की विचारधारा आरएसएस के विचारों के विपरीत थी, परन्तु उन पर भी भाजपा अपना दावा करती है। दरअसल वह पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विरोध में पटेल को खड़ा कर रही है। भाजपा सरदार पटेल और नेहरू को एक-दूसरे के खिलाफ़ दिखाने की साजिश करती है जबकि सच्चाई यह है कि वे एक ही सिक्के के दो पहलू थे।
खड़गे का आरोप था कि भाजपा और संघ परिवार के लोग गांधी से जुड़ी तमाम संस्थाओं पर कब्जा कर रहे हैं और उन्हें विपरीत विचारधारा के लोगों को सौंप रहे हैं। उन्होंने वाराणसी में सर्व सेवा संघ, गुजरात विद्यापीठ आदि के उदाहरण दिये जिनमें आज गांधी विरोधी लोग प्रमुख पदों पर बैठे हुए हैं। उनका कहना था कि 'गांधीवादी और सहकारी आंदोलन के लोगों को हाशिए पर रखा जा रहा है। उन्होंने तंज कसा कि ऐसी सोच रखने वाले गांधीजी का चश्मा चुरा सकते हैं और छड़ी मार सकते हैं लेकिन उनके आदर्शों का पालन नहीं कर सकते।' उन्होंने भाजपा-संघ पर कांग्रेस पार्टी के खिलाफ दुष्प्रचार करने का भी आरोप लगाया जिसका 140 वर्षों का देश-सेवा और स्वतंत्रता की लड़ाई का इतिहास है।
राहुल गांधी ने जो कहा वह उनके हालिया विमर्श का ही एक तरह से पुनर्प्रस्तुतीकरण था। पिछले दिनों उन्होंने यह ईमानदार स्वीकारोक्ति की थी कि 'कांग्रेस ने अन्य पिछड़े वर्गों की उपेक्षा की जिसके कारण उसकी यह स्थिति हुई है।' अधिवेशन में उन्होंने इसे पुनर्प्रतिपादित करते हुए कहा कि 'पिछले कुछ वक्त से हम दलित, मुस्लिम और ब्राह्मण में उलझे रहे और ओबीसी हमारा साथ छोड़ गया। हम मुस्लिमों की बात करते हैं, इसलिए हमें मुस्लिम परस्त कहा जाता है। हमें ऐसी बातों से डरना नहीं है। मुद्दे उठाते रहने हैं।' राहुल का बयान बताता है कि भाजपा-संघ के इस तरह के आरोपों से वह विचलित होने वाली नहीं है। लोकसभा में वे कह ही चुके हैं कि वे पिछड़ों की बात उठाते हैं इसलिये उन पर हमले होते हैं। याद हो कि अनुराग ठाकुर ने उन पर तंज कसा था कि 'जिसकी अपनी जाति का पता नहीं वह जातिगत जनगणना की मांग कर रहा है।'
उदयपुर (राजस्थान) में मई 2022 और रायपुर (छत्तीसगढ़) में फरवरी 2023 में हुए सीडब्ल्यूसी अधिवेशनों के परिप्रेक्ष्य में अहमदाबाद सम्मेलन को देखें तो कुछ बातें साफ होकर सामने आती हैं। पहली तो यही कि 2022 और 2023 के अधिवेशन जिन राज्यों में हुए थे वहां कांग्रेस की सरकारें थीं जो 2023 के अंत में हुए चुनावों में जाती रहीं, जबकि गुजरात भाजपा का सबसे मजबूत गढ़ है। यह एक तरह से मोदी-शाह को ललकारने जैसा है। कह सकते हैं कि राहुल जो 'डरो मत' का नारा देते हैं, उसे आगे बढ़ाने के लिये ही गुजरात में यह अधिवेशन आयोजित किया गया था। दूसरे, राजनीति में धर्म को लेकर जो ऊहापोह कांग्रेस में थी, वह भी अब जाती दिखी। वैसे भी 2024 के लोकसभा चुनाव में उसकी ताकत दोगुनी हुई है जो यह बतलाता है कि धीमे-धीमे ही सही लेकिन कांग्रेस के विमर्श को जन स्वीकृति मिल रही है।
सब कुछ एक ही अधिवेशन में तो तय होने से रहा, परन्तु उदयपुर से अहमदाबाद तक की कांग्रेस की यात्रा देखें तो उसका नैरेटिव व एजेंडा पहले के मुकाबले लगातार मजबूत होता जा रहा है। यदि किसी की शिकायत हो कि उसकी गति धीमी है, तो उसे यह ख्याल में रखना होगा कि उसकी लड़ाई किससे है। धर्म व नफ़रत पर आधारित भाजपा चुनाव जीतने के हर तरह के पैंतरे अपनाती है। फिर, कांग्रेस की लड़ाई दो-दो मोर्चों पर है- पहली तो भाजपा व संघ से और दूसरी आंतरिक, यानी अपने भीतर के भाजपायी स्लीपर सेल्स से। इसके बावजूद यह सच है कि कांग्रेस को इन्हीं परिस्थितियों में आगे बढ़ना है। अपने संदेश को लोगों तक साफ-साफ पहुंचाना और इस विमर्श के आधार पर चुनावी सफलताएं हासिल करना उसकी प्रमुख चुनौती अब भी बनी हुई है। संगठन यहां से क्या संदेश लेकर जाता है- यह तो भविष्य बतलाएगा।